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आलम शाह ख़ान  के  साहित्य  का  संसार  : एक परिचय

  उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में

व्यक्तित्व एवं कृतित्व
 

वे समानांतर हिंदी आंदोलन के अग्रणी लेखक थे। उन्होंने साठ के दशक में कहानियां लिखना शुरू कर दिया था। सत्तर के दशक में समानांतर कहानी आंदोलन के समय उनका नाम धूमकेतु की तरह हिंदी कहानी के पटल पर चमका। कमलेश्वर के साथ वे सारिका में ख़ूब छपे। किताबघर प्रकाशन द्वारा  2014 में प्रकाशित दस प्रतिनिधि कहानियों के संपादकीय में हिमांशु पंड्या जी उनकी कहानियों के बारे में लिखते हैं कि "दलित चेतना की दस्तक से पहले हमारा हिंदी का संसार इन विद्रूप सच्चाईयों के चोंधिया देने वाले प्रत्यक्ष  वर्णन के लिए तैयार नहीं था। क्या आलम  शाह खान वक्त से आगे के रचनाकार थे? डॉ मंजू चतुर्वेदी लिखती हैं "डॉक्टर आलम शाह ने स्त्री विमर्श नाम के विमर्श शुरू होने के बहुत पहले ही इस तरह के साहित्य की रचना शुरू कर दी था।

                                                                                     

                                                                                      जब उन्होंने महिलाओं की व्यथा के बारे में लिखना शुरू किया था                                                                                        तब स्त्री विमर्श नाम का कोई विमर्श अस्तित्व में नहीं था।" कहानी                                                                                        की बात "पीड़ा के पिरामिड" में वे अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में                                                                                        लिखते हैं "मैं तब तक क़लम नहीं उठाता जब तक कि कहीं कुछ                                                                                        नया आमतौर से अलग और ख़ास   में भी ख़ास  निगाह में न चढ़                                                                                          जाए और जिसके 'हेतु' मुझे भीतर ही भीतर मथ ना डालें। और                                                                                            इस नये और सबसे जुदा को पाने के लिए ख़ास  जतन करने हों                                                                                          ऐसा नहीं है, पर हां आंखें जरूर खुली रखनी पड़ती है। दूसरों के                                                                                          भीतर पैठ कर उनके हिए- जिए को जानना होता है और फिर उनके हौसले-हिरास को परख कर उनकी रहनी -करनी में सामंजस्य बिठाना होता है। यह एक बारीक और लंबी साधना है जो रचना में तब  उतर पाती है जब आप अपने आप को बिसार जाएं और जिनकी बात है उनके साथ मानसिक रूप से जुड़कर, जीने लग जाएं।"
 

वे स्वभाव से बहुत ही संवेदनशील , भावुक पर मज़ाकिया, हंसते-हंसाते रहने वाले थे। उनकी हाज़िर जवाबी का कोई सानी नहीं था।  वे किसी ग़लत बात पर चुप नहीं रहते। अपने एक लेख "अपनी बात: एक मौत जीने के बाद" में वे लिखते हैं "कह नहीं सकता कि वह कौन सी शै थी जो सिखला गई कि ग़लत को ग़लत कहना ही चाहिए। और आगे समय की मार के साथ तो यह आदत ही बन गई कि नन्हे से ज़ुल्म  को भी बिना टोके ना जाने दिया जाए। .… सवाल करना मेरी फितरत है।"

कहानियों के पात्र
 

डॉक्टर आलम शाह ख़ान  ने हाशिए के लोगों के जीवन संघर्ष के बारे में लिखा है । उनकी कहानियों के पात्र निम्न वर्गीय हैं। जानवरों से भी बदतर जीवन जीने वाले लोगों पर उन्होंने अपना ध्यान केंद्रित किया है। ज़्यादातर स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानियां मध्यवर्गीय परिधि में ही लिखी गई हैं और आलम  शाह ख़ान उन गिने-चुने लेखकों में से हैं जिन्होंने निम्न वर्गीय पात्रों को लेकर कहानियां लिखी हैं। अपने पात्रों के बारे में वह लिखते हैं "इतिहास भी मुझे बेचैन करता है और भूगोल भी और यूं चौफेर बन आया आज और कल के संत्रास से अभिशप्त जन ; उनके दलित, वंचित तथा तिरस्कृत जीवन की निरस्त इच्छाएं-आकांक्षाएं, आरजू, और तमन्नाएं मेरे मन-माथे में गहरा उद्वेलन ला देती हैं और फिर मैं अपने चारों ओर बने-उभरे व्यवस्था के कंगूरो को ध्वस्त करने की धुन में बौराया-सा डोलता हूं।"उन्होंने ऐसे पात्रों के बारे में लिखा है जिन्हें हम देख कर भी अनदेखा कर देते हैं।  जैसे :-

 

1) सांसो का रेवड़ में जानवरों को ट्रक में उठाकर खड़ा करने वाला  जगनवा।
 

2) ख़ून - खेती में ख़ून  बेचकर खाने का जुगाड़ करने वाली  बागरिया लुगाई।
 

3)पंछी करे काम में नालियों की तलछट से कचरा बीनने वाला सनीचरा।
 

4) एक और मौत में कुल्फी वाला जेठू।
 

5) पराई प्यास का सफर में होटल में काम करने वाला लखना,  इत्यादि ।
 

उनकी कहानियों की ख़ास  बात यह है कि उनमें नरेटर ग़ायब  है। पात्र ही अपनी बात अपनी भाषा में कहते हैं। एक लेख "कहानी की बात: पीड़ा के पिरामिड "में अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बहुत ही प्रभावशाली ढंग से उन्होंने यह बताया है कि वह किस पर क्यों और और कब लिखते हैं-" अदना और उपेक्षित जन ही शासन विधान और न्याय के त्रिभुज का आधार बिंदु है। और जब-जब शासन निरंकुश होता है विधान मारक बनता है न्याय उन्हें कम तोलता है और आधार पर असहनीय बोझ बढ़ता है- तब ही यह आधार बिंदु कसमसाने  लगते हैं। नतीजे में सत्ता के सांचे बिगड़ने लगते हैं। उसका ढांचा चरमराने लग जाता है। सत्ता- साधक तथा नीति -नियामक तब कथित कल्याणकारी योजनाओं की जुगत जोड़कर तो कभी धर्म- संप्रदाय, जांत -पांत,भाषा संस्कृति,परम्परापुनरुत्थान स्मृति - पुराण की पैंतरेबाजी दिखाकर जो जहां है और जैसा है उसे वैसा ही और वही बनाए रखते हुए अपनी शीर्ष स्थिति को साधे रखने की तिकड़म भिड़ाते  हैं। उधर आधार के रूप में इस्तेमाल होता हुआ जनबल विचलित होकर उसे नीचे लाने के लिए राड़ मांडता है, संघर्ष साधता है। यों शीर्ष  स्थिति से नीचे खिसकने से सत्ता पुत्र और सत्ता के पहरुए गुरेज करेंगे और सत्ता की आधार या व्यवस्था की घटक बिंदु उन्हें नीचे ढरकाने के लिए करवट लेंगे। नतीजे में एक लड़ाई, संघर्ष की स्थिति, सामने आएगी ही आएगी। इसी परिस्थिति में लड़ने के मूड में तनकर सामने आने वाले अपने पात्रों से मैं पहचान करता हूं। उन्हें जीता जागता ,उठता उठाता, मारता हारता, देखता हूं और बेहद लंबी लड़ाई लड़ने के लिए साधे गए उनके हौसले हथियार और हिम्मत हिये के कराल-कमाल को समूचे परिवेश के आग्रह - विग्रह को उन्हीं की बोली और मुहावरे में कहने के लिए कलम तोलता हूं। .......
 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

विश्वास यह रहता है कि व्यवस्था के लट्ठे पर चढ़े समाज सुधार के नारों के नेह की चिकनाई कभी सूखेगी और ऊपर चढ़ने वाले लड़ाकू लोगों की पकड़ उस पर मजबूत बनेगी और फिर भी ऊपर चढ़ने की होंस में जुते नीचे नहीं आएंगे, ऊपर ही ऊपर चढ़ते चले जाएंगे और आखिर में शीर्ष बिंदु का शिखर टूट कर नीचे धसक आधार बिंदुओं से मिलकर एकमेक हो जाएगा। व्यवस्था के पीड़ट पिरामिड ढह जाएंगे और तब एक सम और सीधी रेखा समाज की व्यवस्था बनेगी। तब शीर्ष का बोझ नहीं होगा सभी आधार और सभी शीर्ष होंगे और आदमी को सिर्फ आदमी होने से बड़ा माना जाएगा और वह हल्के हल्के अपनी जगत यात्रा खुले मन से बेधड़क पूरी कर सकेगा। तब व्यवस्था तो होगी पर आतंक नहीं होगा ...अपनी ऊंची हैसियत को शिर्ष बिंदु की ढब में रोपकर माथे पर नहीं चढ़ सकेगा उनके अस्तित्व को नकार कर अपने अहम को आरोपित करना तब संभव नहीं होगा।"
 

भाषा
 

डॉक्टर आलम शाह ख़ान भाषा के प्रति बहुत ही सजग थे। उनके पात्र जिस सामाजिक स्तर से आते हैं वैसी ही भाषा और बोली बोलते हैं। अपनी भाषा के बारे में वे लिखते हैं कि "लिहाज़ में भले ही ना रख पाऊं पर लहजे को लेकर मैं चार कोस पैदल चल जाऊंगा। अपने किरदार के लहजे और बोली की लचक और तासीर हासिल करने के लिए मैंने बड़े पापड़ बेले हैं, अपनी रचना की बोली- भाषा को मैंने जांचा परखा ही नहीं, कच्चे चमड़े की तरह कमाया और  साधा है I और यूं भाषा बोली के शब्द तप-तपाकर मेरे स्मृति- कोष में जमा होते चलते हैं और रचना के मोर्चे पर सामने हाजिर हो जाते हैं। यूं एक- एक शब्द की तलाश - तराश फिर उन्हें अदा करने वाले लोगों की मान- मनुहार, उनका कैनवास -कलेवर, उनके अपने धंधे- पानी, मन- मोह से उनका जोड़-जमाव, उनकी मुहावरेदानी और बात की रवानगी मेरा बहुत खून सुखाती है, और नतीजन मैं ढेर सारा लिख नहीं पाता।"उनकी भाषा उस गरीब आबादी की , उनके जुझारू पात्रों की भाषा है  जो जीवन जीने की जद्दोजहद में लगे हैं। परंतु लेखक ने इस भाषा को ज्यों का त्यों नहीं लिखकर अपनी और से उसमें बहुत बदलाव किया है। यह तलछट में रहने वाले ग़रीब  लोगों, आम नागरिकों की बोली -भाषा है जो नैतिकता के आवरण को तार-तार कर देती है। उनके हर वाक्य में हर शब्द में गहरी संवेदना महसूस की जा सकती है। आलम शाह ख़ान की कहानियों में नरेटर लगभग गायब है। यह लेखक की विलक्षण उपलब्धि है। कहानी के संवाद खुद ही कहानी का वातावरण, पात्रों का जीवन एवं उनके जीवन की जद्दोजहद को बयान करते हैं।

 

एक और सीता, 1979

पंचशील प्रकाशन,

जयपुर

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किराय की कोख, 1982

मीनाक्षी प्रकाशन,

नई दिल्ली

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साँसों  का रेवार, 1994

पंचशील प्रकाशन,

जयपुर

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सम्बोधन: आलम शाह खान स्मृति अंक, जुलाई-सितंबर 2003

दास प्रतिनिधि   खनिया,

2014, किताबघर   प्रकाशन

नई दिल्ली

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